ऐश-ए-उम्मीद ही से ख़तरा है | |
दिल को अब दिल-दही से ख़तरा है | |
है कुछ ऐसा कि उस की जल्वत में | |
हमें अपनी कमी से ख़तरा है | |
जिस के आग़ोश का हूँ दीवाना | |
उस के आग़ोश ही से ख़तरा है | |
याद की धूप तो है रोज़ की बात | |
हाँ मुझे चाँदनी से ख़तरा है | |
है अजब कुछ मोआ'मला दरपेश | |
अक़्ल को आगही से ख़तरा है | |
शहर-ए-ग़द्दार जान ले कि तुझे | |
एक अमरोहवी से ख़तरा है | |
है अजब तौर हालत-ए-गिर्या | |
कि मिज़ा को नमी से ख़तरा है | |
हाल ख़ुश लखनऊ का दिल्ली का | |
बस उन्हें 'मुसहफ़ी' से ख़तरा है | |
आसमानों में है ख़ुदा तन्हा | |
और हर आदमी से ख़तरा है | |
मैं कहूँ किस तरह ये बात उस से | |
तुझ को जानम मुझी से ख़तरा है | |
आज भी ऐ कनार-ए-बान मुझे | |
तेरी इक साँवली से ख़तरा है | |
उन लबों का लहू न पी जाऊँ | |
अपनी तिश्ना-लबी से ख़तरा है | |
'जौन' ही तो है 'जौन' के दरपय | |
'मीर' को 'मीर' ही से ख़तरा है | |
अब नहीं कोई बात ख़तरे की | |
अब सभी को सभी से ख़तरा है | |
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