तुम स्वयं को सजाती रहो रात-दिन |
रात-दिन मैं स्वयं को जलाता रहूँ |
तुम मुझे देख कर मुड़ के चलती रहो |
मैं विरह में मधुर गीत गाता रहूँ |
मैं ज़माने की ठोकर ही खाता रहूँ |
तुम ज़माने को ठोकर लगाती रहो |
जि़ंदगी के कमल पर गिरूँ ओस-सा |
रोष की धूप बन तुम सुखाती रहो |
कँटकों की सजाती रहो राह तुम |
मैं उसी राह पर रोज़ जाता रहूँ |
तुम स्वयं को सजाती रहो रात-दिन |
रात-दिन मैं स्वयं को जलाता रहूँ |
मानता हूँ प्रिये तुम मुझे ना मिलीं |
और व्याकुल विरह-भार मुझको दिया |
लाख तोड़ा हृदय शब्द-आघात से |
पर अमर गीत उपहार मुझको दिया |
तुम यूँ ही मुझको पल-पल में तोड़ा करो |
मैं बिखर कर तराने बनाता रहूँ |
तुम स्वयं को सजाती रहो रात-दिन |
रात-दिन मैं स्वयं को जलाता रहूँ |
तुम जहाँ भी रहो खिलखिलाती रहो |
मैं जहाँ भी रहूँ बस सिसकता रहूँ |
तुम नयी मंजि़लों की तरफ़ बढ़ चलो |
मैं क़दम-दो-क़दम चल के थकता रहूँ |
तुम संभलती रहो मैं बहकता रहूँ |
दर्द की ही ग़ज़ल गुनगुनाता रहूँ |
तुम स्वयं को सजाती रहो रात-दिन |
रात-दिन मैं स्वयं को जलाता रहूँ |
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