रूपा रानी बड़ी सयानी; |
मृगनयनी लौनी छवि वाली, |
मधुरिम वचना भोली-भाली; |
भरी-भरी पर खाली-खाली। |
छोटे कस्बे में रहती थी; |
जो गुनती थी सो कहती थी, |
दिन भर घर के बासन मलती; |
रातों मे दर्पण को छलती। |
यों तो सब कुछ ठीक-ठाक था; |
फिर भी वो उदास सी रहती, |
उनकी काजल आंजी आँखें |
सूनेपन की बातें कहती। |
जगने उठने में सोने में |
कुछ हंसने में कुछ रोने में |
थोड़े दिन यूँ ही बीते |
खाली खाली रीते रीते |
तभी हमारे कवि जी, |
तीन लोक से न्यारे कवि जी, |
उनके सपनों में आ छाए; |
उनको बहुत-बहुत ही भाए। |
यूं तो लोगों की नज़रों में |
कवि जी कस्बे का कबाड़ थे, |
लेकिन उनके ऊपर नीचे |
सच्चे झूठे कुछ जुगाड़ थे। |
बरस दो बरस में टीवी पर |
उनका चेहरा दिख जाता था; |
कभी कभी अखबारों में भी |
उनका लिखा छप जाता था। |
तब वह दुगने हो जाते थे; |
सबसे कहते बहुत व्यस्त हूँ, |
मरने तक की फुर्सत कब है; |
भाग-दौड़ में बड़ा तृस्त हूँ। |
रूपा रानी को वो भाए; |
उनको रूपा रानी भाई, |
जैसे गंगा मैया एक दिन |
ऋषिकेष से भू पर आई। |
धरती को आकाश मिल गया; |
पतझड़ को वनवास मिल गया, |
पीड़ा ने निर्वासन पाया; |
आँसू को वनवास मिल गया। |
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