जाड़ों की गुनगुनी धूप तुम - कुमार विश्वास

 
जाड़ों की गुनगुनी धूप तुम
तन के आलोचक रोमों को
कालिदास की उपमा जैसी
ऋतु-मुखरा की कटि पर बजतीं
किरणों की करघनी धूप तुम
जाड़ों की गुनगुनी धूप तुम

सत्तो-फत्तो, रूमिया -धुमिया
होरी-गोबर, धनिया-झुनिया
सबके द्वारे खुद ही आती
सबसे मिलती सबको भाती
हर दिशि-गोपी के संग रास
रचा लेतीं मधुबनी धूप तुम
जाड़ों की गुनगुनी धूप तुम

तन्द्रा का आसव बिखेरतीं
गत सुधियों की माल फेरतीं
पशुओं को अपनापन देतीं
चिड़ियों को व्यापक मन देतीं
दिन की तिक्त कुटिल अविरतता
में, रसाल-रस सनी धूप तुम
जाड़ों की गुनगुनी धूप तुम
 

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