जाड़ों की गुनगुनी धूप तुम |
तन के आलोचक रोमों को |
कालिदास की उपमा जैसी |
ऋतु-मुखरा की कटि पर बजतीं |
किरणों की करघनी धूप तुम |
जाड़ों की गुनगुनी धूप तुम |
सत्तो-फत्तो, रूमिया -धुमिया |
होरी-गोबर, धनिया-झुनिया |
सबके द्वारे खुद ही आती |
सबसे मिलती सबको भाती |
हर दिशि-गोपी के संग रास |
रचा लेतीं मधुबनी धूप तुम |
जाड़ों की गुनगुनी धूप तुम |
तन्द्रा का आसव बिखेरतीं |
गत सुधियों की माल फेरतीं |
पशुओं को अपनापन देतीं |
चिड़ियों को व्यापक मन देतीं |
दिन की तिक्त कुटिल अविरतता |
में, रसाल-रस सनी धूप तुम |
जाड़ों की गुनगुनी धूप तुम |
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