मद्यँतिका (मेहंदी) - कुमार विश्वास

 

मैं जिस घर में रहता हूँ, उस घर के पिछवाड़े
कुल चार साल की एक बालिका रहती है
जाने क्यूँ मेरी गर्दन से लिपट झूल
वो मुझको सबसे प्यारा अंकल कहती है

है नाम जिसका मद्यन्तिका याकि मेहंदी
सुनता हूँ उसने अपने पिता को नहीं देखा
उसकी जननी को त्याग कहीं बसते हैं वे
कितना कमज़ोर लिखा विधि ने उनका लेखा

धरती पर उसके आने की आहट सुनकर
बस दस दिन ही जननी उल्लास मना पायी
कुंठाओं की चौसर पर सिक्कों की बाज़ी
हारी, लेकर गर्भस्थ शिशु वापस आयी

अब एक नौकरी का बल और संबल उसका
बस ये ही दो आधार ज़िंदगी जीने को
अमृतरूपा इक बेल सींचने की ख़ातिर
वह विवश समय का तीक्ष्ण हलाहल पीने को

वह कभी खेलती रहती है अपने घर पर
या कभी-कभी मुझसे मिलने आ जाती है
मैं बच्चों के कुछ गीत सुनाता हूँ उसको
उल्लास भरी वह मेरे संग-संग गाती है

इतनी पावन, इतनी मोहक, इतनी सुन्दर
जैसे उमंग ही स्वयं देह धर आयी हो
या देवों ने भी नर की सृजन-शक्ति देख
सम्मोहित हो यह अमर आरती गायी हो

वह जैसे नयी कली चटके उपवन महके
धरती की शय्या पर किरणों की अंगड़ाई
वह जैसे दूर कहीं पर बाँसुरिया बाजे
वह जैसे मंडप के द्वारे की शहनाई

वह जैसे उत्सव की शिशुता हो मूर्तिमंत
वह बचपन जैसे इन्द्रधनुष के रंगों का
वह जिज्ञासा जैसे किशोर हिरनी की हो
वह नर्तन जैसे सागर बीच तरंगों का

वह जैसे तुलसी के मानस की चौपाई
मैथिल-कोकिल-विद्यापति कवि का एक छन्द
वह भक्ति भरे जन्मांध सूर की एक तान
वह मीरा के पद से उठती अनघा सुगंध

वह मेघदूत की पीर, कथा रामायण की,
उसके आगे लज्जित कवि-कुलगुरु का मनोज
वह वर्ड्सवर्थ की लूसी का भारतीय रूप
वह महाप्राण की, जैसे जीवित हो सरोज

 

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