GULZAR POETRY (P-6)


1. ग़ालिब
1.
रात को अक्सर होता है,परवाने आकर,
टेबल लैम्प के गिर्द इकट्ठे हो जाते हैं
सुनते हैं,सर धुनते हैं
सुन के सब अश'आर गज़ल के
जब भी मैं दीवान--ग़ालिब
खोल के पढ़ने बैठता हूँ
सुबह फिर दीवान के रौशन सफ़हों से
परवानों की राख उठानी पड़ती है .
2.
बल्ली-मारां के मोहल्ले की वो पेचीदा दलीलों की सी गलियाँ
सामने टाल की नुक्कड़ पे बटेरों के क़सीदे
गुड़गुड़ाती हुई पान की पीकों में वो दाद वो वाह वा
चंद दरवाज़ों पे लटके हुए बोसीदा से कुछ टाट के पर्दे
एक बकरी के मिम्याने की आवाज़
और धुँदलाई हुई शाम के बे-नूर अँधेरे साए
ऐसे दीवारों से मुँह जोड़ के चलते हैं यहाँ
चूड़ी-वालान कै कटरे की बड़ी-बी जैसे
अपनी बुझती हुई आँखों से दरवाज़े टटोले

इसी बे-नूर अँधेरी सी गली-क़ासिम से
एक तरतीब चराग़ों की शुरूअ' होती है
एक क़ुरआन--सुख़न का सफ़हा खुलता है
असदुल्लाह-ख़ाँ-'ग़ालिब' का पता मिलता है

2. कंधे झुक जाते हैं

कंधे झुक जाते हैं जब बोझ से इस लम्बे सफ़र के
हांफ जाता हूँ मैं जब चढ़ते हुए तेज चढाने
सांसे रह जाती है जब सीने में एक गुच्छा हो कर
और लगता है दम टूट जायेगा यहीं पर
एक नन्ही सी नज़्म मेरे सामने कर
मुझ से कहती है मेरा हाथ पकड़ कर-मेरे शायर
ला , मेरे कन्धों पे रख दे,
में तेरा बोझ उठा लूं

3. एक और दिन

खाली डिब्बा है फ़क़त, खोला हुआ चीरा हुआ
यूँ ही दीवारों से भिड़ता हुआ, टकराता हुआ
बेवजह सड़कों पे बिखरा हुआ, फैलाया हुआ
ठोकरें खाता हुआ खाली लुढ़कता डिब्बा

यूँ भी होता है कोई खाली-सा- बेकार-सा दिन
ऐसा बेरंग-सा बेमानी-सा बेनाम-सा दिन

4. विरासत

अपनी मर्ज़ी से तो मज़हब भी नहीं उस ने चुना था
उस का मज़हब था जो माँ बाप से ही उस ने विरासत में लिया था

अपने माँ बाप चुने कोई ये मुमकिन ही कहाँ है?
उस पे ये मुल्क भी लाज़िम था कि माँ बाप का घर था इस में
ये वतन उस का चुनाव तो नहीं था...

वो तो कल नौ ही बरस का था, उसे क्यूँ चुन कर
फ़िर्का-वाराना फ़सादात ने कल क़त्ल किया।।

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