1. बोस्की-१
बोस्की ब्याहने का समय
अब करीब आने
लगा है
जिस्म से छूट
रहा है कुछ
कुछ
रूह में डूब
रहा है कुछ
कुछ
कुछ उदासी है, सुकूं
भी
सुबह का वक्त
है पौ फटने
का,
या झुटपुटा शाम का
है मालूम नहीं
यूँ भी लगता
है कि जो
मोड़ भी अब
आएगा
वो किसी और
तरफ़ मुड़ के
चली जाएगी,
उगते हुए सूरज
की तरफ़
और मैं सीधा
ही कुछ दूर
अकेला जा कर
शाम के दूसरे
सूरज में समा
जाऊँगा !
बोस्की-२
नाराज़ है मुझसे
बोस्की शायद
जिस्म का एक
अंग चुप चुप
सा है
सूजे से लगते
है पांव
सोच में एक
भंवर की आँख
है
घूम घूम कर
देख रही है
बोस्की,सूरज का
टुकड़ा है
मेरे खून में
रात और दिन
घुलता रहता है
वह क्या जाने,जब वो
रूठे
मेरी रगों में
खून की गर्दिश
मद्धम पड़ने लगती
है
3. कायनात-१
बस चन्द करोड़ों
सालों में
सूरज की आग
बुझेगी जब
और राख उड़ेगी
सूरज से
जब कोई चाँद
न डूबेगा
और कोई जमीं
न उभरेगी
तब ठंढा बुझा
इक कोयला सा
टुकड़ा ये जमीं
का घूमेगा
भटका भटका
मद्धम खकिसत्री रोशनी में!
मैं सोचता हूँ उस
वक्त अगर
कागज़ पे लिखी
इक नज़्म कहीं
उड़ते उड़ते
सूरज में गिरे
तो सूरज फिर
से जलने लगे!!
4. कायनात-२
अपने"सन्तूरी"सितारे से अगर
बात करूं
तह-ब-तह
छील के आफ़ाक़
कि पर्तें
कैसे पहुंचेगी मेरी बात
ये अफ़लाक के
उस पर भला?
कम से कम
"नूर की रफ़्तार"से भी
जाए अगर
एक सौ सदियाँ
तो ख़ामोश ख़लाओं
से
गुजरने में लगेंगी
कोई माद्दा है मेरी
बात में तो
"नून"के नुक्ते
सी रह जाएगी
"ब्लैक होल"गुजर के
क्या वो समझेगा?
मैं समझाऊंगा क्या?
5. कायनात-३
बहुत बौना है
ये सूरज ....!
हमारी कहकशाँ की इस
नवाही सी 'गैलेक्सी'में
बहुत बौना सा
ये सूरज जो
रौशन है..।
ये मेरी कुल
हदों तक रौशनी
पहुँचा नहीं पाता
मैं मार्ज़ और जुपिटर
से जब गुजरता
हूँ
भँवर से,ब्लैक
होलों के
मुझे मिलते हैं रस्ते
में
सियह गिर्दाब चकराते ही
रहते हैं
मसल के जुस्तजु
के नंगे सहराओं
में वापस
फेंक देते हैं
जमीं से इस
तरह बाँधा गया
हूँ मैं
गले से ग्रैविटी
का दायमी पट्टा
नहीं खुलता!
6. कायनात-४
रात में जब
भी मेरी आँख
खुले
नंगे पाँव ही
निकल जाता हूँ
कहकशाँ छू के
निकलती है जो
इक पगडंडी
अपने पिछवाड़े के "सन्तुरी"
सितारे की तरफ़
दूधिया तारों पे पाँव
रखता
चलता रहता हूँ
यही सोच के
मैं
कोई सय्यारा अगर जागता
मिल जाए कहीं
इक पड़ोसी की तरह
पास बुला ले
शायद
और कहे
आज की रात
यहीं रह जाओ
तुम जमीं पर
हो अकेले
मैं यहाँ तन्हा
हूँ
7. खुदा-१
बुरा लगा तो
होगा ऐ खुदा
तुझे,
दुआ में जब,
जम्हाई ले रहा
था मैं--
दुआ के इस
अमल से थक
गया हूँ मैं!
मैं जब से
देख सुन रहा
हूँ,
तब से याद
है मुझे,
खुदा जला बुझा
रहा है रात
दिन,
खुदा के हाथ
में है सब
बुरा भला--
दुआ करो!
अजीब सा अमल
है ये
ये एक फ़र्जी
गुफ़्तगू,
और एकतरफ़ा--एक ऐसे
शख्स से,
ख़याल जिसकी शक्ल है
ख़याल ही सबूत
है
खुदा-२
मैं दीवार की इस
जानिब हूँ ।
इस जानिब तो धूप
भी है हरियाली
भी!
ओस भी गिरती
है पत्तों पर,
आ जाये तो
आलसी कोहरा,
शाख पे बैठा
घंटों ऊँघता रहता
है।
बारिश लम्बी तारों पर
नटनी की तरह
थिरकती,
आँखों से गुम
हो जाती है,
जो मौसम आता
है,सारे रस
देता है!
लेकिन इस कच्ची
दीवार की दूसरी
जानिब,
क्यों ऐसा सन्नाटा
है
कौन है जो
आवाज नहीं करता
लेकिन--
दीवार से टेक
लगाए बैठा रहता
है
खुदा-३
पिछली बार मिला
था जब मैं
एक भयानक जंग में
कुछ मशरूफ़ थे
तुम
नए नए हथियारों
की रौनक से
काफ़ी खुश लगते
थे
इससे पहले अन्तुला
में
भूख से मरते
बच्चों की लाश
दफ्नाते देखा था
और एक बार
...एक और मुल्क
में जलजला देखा
कुछ शहरों के शहर
गिरा के दूसरी
जानिब
लौट रहे थे
तुम को फलक
से आते भी
देखा था मैंने
आस पास के
सय्यारों पर धूल
उड़ाते
कूद फलांग के दूसरी
दुनियाओं की गर्दिश
तोड़ ताड़ के
गेलेक्सीज के महवर
तुम
जब भी जमीं
पर आते हो
भोंचाल चलाते और समंदर
खौलाते हो
बड़े 'इरेटिक' से लगते
हो
काएनात में कैसे
लोगों की सोहबत
में रहते हो
तुम
खुदा-४
पूरे का पूरा
आकाश घुमा कर
बाज़ी देखी मैंने--
काले घर में
सूरज रख के,
तुमने शायद सोचा
था, मेरे सब
मोहरे पिट जायेंगे,
मैंने एक चिराग
जला कर,
अपना रास्ता खोल लिया
तुमने एक समंदर
हाथ में लेकर,
मुझ पर ढेल
दिया
मैंने नूह की
कश्ती उसके ऊपर
रख दी
काल चला तुमने,
और मेरी जानिब
देखा
मैंने काल को
तोड़ के लम्हा
लम्हा जीना सीख
लिया
मेरी खुदी को
तुमने चंद चमत्कारों
से मारना चाहा
मेरे एक प्यादे
ने तेरा चाँद
का मोहरा मार
लिया --
मौत की शह
देकर तुमने समझा
था अब तो
मात हुई
मैंने जिस्म का खोल
उतर के सौंप
दिया --और
रूह बचा ली
पूरे का पूरा
आकाश घुमा कर
अब तुम देखो
बाजी
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